ठंड आज अधिक थी। दोपहर का समय था। टंडन साहब के परिवार के प्रायः सभी सदस्य घर की छत पर धूप सेंक रहे थे। टंडन साहब कचहरी गए हुए थे। आज मैं उनके साथ नहीं गया था, क्योंकि मैं आज जुकाम से पीड़ित था। इसलिए मैं उनके मुगलई सोफे में घुसा हुआ आराम फरमा रहा था। अब यह बात अलग है कि कुछ लोग यह भी सोच सकते हैं कि चूहे को जुकाम? जिसे सोचना हो सोचे। बीमार होने का हक क्या सिर्फ आदमी को ही है? क्या मेरे जैसा तुच्छ प्राणी कभी बीमार नहीं हो सकता?
ड्राइंगरूम में आहट हुई। मैंने सोफे के छिद्र में से झाँक कर देखा। मनोज सिंह आकर बैठ गया। कुछ देर में विनी भीतर से आई।
''संजय नहीं है क्या?'' मनोज सिंह ने पूछा।
''भइया सो रहे हैं।''
''और सब लोग?''
''ऊपर छत पर हैं।''
उसके बाद कमरे में थोड़ी देर खामोशी छाई रही। उस मौन को मनोज ने ही तोड़ा। उसने विनी को कहा - ''कल तुमने सिनेमा हाँल पर बहुत इंतजार कराया। ... पूरा एक घंटा।''
विनी ने कहा - ''कल दादी की तबीयत बहुत खराब थी। मिनी की सहेलियाँ आ गई थीं। मैंने निकलने की बहुत कोशिश की, मगर माँ ने जाने नहीं दिया। ... अच्छा, यह बताइए आपने उन टिकटों का क्या किया?''
''करना क्या था? फाड़कर फेंक दिए।''
''फाड़े क्यों? किसी बेचारे जरूरतमंद को दे देते।''
''मैं इसमें विश्वास नहीं रखता।''
''कल मैं भी बहुत देर आपके फोन की प्रतीक्षा में रही।''
''फोन कहाँ से करता?''
''कहीं से भी। अब तो चारों ओर तमाम पी.सी.ओ. लग गए हैं।''
''विनी!'' भीतर से श्रीमती टंडन की आवाज आई। उन्होंने पूछा - ''कौन है बाहर?''
''आई माँ!'' कहकर विनी अंदर को भागी। एक पल को ठिठकी। उसने धीरे से लेकिन चपलता के साथ मनोज से कहा - ''मैं आपके लिए शरबत लाती हूँ। रुके रहिएगा। शायद भइया भी जाग गए हों।''
मनोज ने एक लंबी साँस खींची और सेंटर टेबल पर पड़ा हुआ समाचार-पत्र उठाकर देखने लगा। प्रथम पृष्ठ पलटते ही तीसरे पन्ने पर उसकी आँखें एक स्थानीय समाचार पर अटक गईं। शीर्षक था - ''प्रतिमा-स्थापना न होने पर आत्मदाह की चेतावनी।'' उसके बाद कल कचहरी में घटी घटना का उल्लेख छपा था। साथ ही 'दादा साहब अर्जुनदास प्रतिमा स्थापना समिति' के अध्यक्ष पोपटलाल का बयान छपा था। बयान में जिला प्रशासन की निंदा करते हुए कहा गया था कि यदि अड़तालीस घंटे के भीतर प्रशासन द्वारा कचहरी में दादा साहब की प्रतिमा-स्थापना की स्वीकृति नहीं दी गई तो वह कचहरी प्रांगण में किसी भी स्थल पर और किसी भी समय 'आत्मदाह' कर लेंगे।
इसी समाचार में आगे छपा था कि पोपटलाल और उनके बीस समर्थकों को अनशन स्थल से दोपहर के समय शांति भंग करने की आशंका में पुलिस ने गिरफ्तार किया था। सायंकाल उन्हें रिहा भी कर दिया गया। उधर अधिवक्ता संघ ने भी एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि अपनी माँगों के समर्थन में वे दो दिन बाद रास्ता जाम करेंगे। इस 'रास्ता-जाम आंदोलन' में भाग लेने के लिए तहसीलों के अधिवक्ताओं का भी आह्वान किया गया था।
मनोज अभी समाचार पढ़ रहा था कि संजय आ गया। मनोज ने कहा - ''कभी-कभी लगता है, तू ठीक कहता है यार कि वकालत के प्रोफेशन में अब कुछ नहीं रह गया है। ... इन नेताओं और आज के वकीलों में जैसे कोई अंतर ही नहीं रह गया है। सबके सब एक अंधी होड़ में शामिल हैं।''
''मूर्ति-विवाद वाली खबर?'' संजय ने पूछा। फिर कहा - ''देख लो। जब इस तरह पढ़े-लिखे लोग सड़कों पर बैठेंगे तो अधकचरे लोग आत्मदाह नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे? ... ख़ैर प्रचार तो दोनों ही स्थितियों में मिलना है उन्हें।''
संजय को कुछ किताबें खरीदनी थीं। उसने मनोज को साथ चलने के लिए दोपहर को बुलवाया था। विनी शर्बत के गिलास रख गई थी। मनोज धीरे-धीरे शर्बत खत्म कर रहा था। संजय उसे बता रहा था कि उसने अपने दादा जी के मुख से सुना है कि आज की वकालत और आज से पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व की वकालत में कितना फर्क है। यह पेशा उन दिनों कितना शांत और सपाट हुआ करता था, जबकि आज का रास्ता अनेक ऊबड़-खाबड़ धरातलों और कील-काँटों से भरा पड़ा है। राजनीति एवं वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं ने इसे काफी गहरा आघात पहुँचाया है।
बताते हैं कि जब दादा जी की प्रैक्टिस शिखर पर थी तो इसी बँगले के साथ जुड़ी बगिया में ग्रामीण अंचलों से आए ढेरों मुवक्किल कई-कई दिन तक डेरा डाले पड़े रहते थे। सुबह-शाम बगिया में ही उनका भोजन तैयार होता। मिट्टी की हँड़ियों में दाल-भात पकता और कंडों की आग में भौरियाँ सिकतीं। वकील साहब मुवक्किलों को डाँट-डाँटकर अच्छी तरह सिखाते कि उन्हें अदालत के सामने अपने बचाव में क्या कहना है। सरकारी वकील अगर जिरह में अलाँ प्रश्न करे तो उसे फलाँ उत्तर देना है। पुराने वकील जब भी फुर्सत के क्षण मिलते तो अपने संबंधियों और मित्रों से भी अक्सर कोर्ट-कचहरी और मुकदमों की ही बातें किया करते। ''फलाँ केस में ऐसा हुआ था। बिलसिया मर्डर केस में जज ने प्रोसीक्यूशन के वकील से पूछा कि...'' इत्यादि-इत्यादि।
आज हम देखते हैं कि वकील साहब की बगिया खत्म हो गई है। उसके आधे भाग में लॉन बन चुका है। आधे भाग में एक और रिहायशी भवन बनाकर उसे किराए पर उठा दिया गया है। दूर-दराज के मुवक्किल अब वकील साहब के बँगले पर डेरा नहीं डालते। उन्हें कचहरी के तख्त पर मुंशी जी ही निपटाते रहते हैं। वकील साहब को अन्य व्यस्तताओं से जब कुछ समय मिलता है तभी उनसे बात कर पाते हैं। गाँव और शहर के बीच आवागमन के साधन अब काफी हो गए हैं। भूसे की तरह भरकर चलने वाली सवारी गाड़ियाँ - बसें, जीपें, टैम्पो सभी कुछ तो हैं। मुवक्किल अब रोजाना 'शंटिंग' करते हैं। आडंबर, नेतागिरी, दलाली, उद्दंडता, उखाड़-पछाड़ और आंदोलनों की सनक आज की वकालत में संक्रामक रोग के कीटाणुओं की भाँति समाती जा रही हैं।
संजय को लगता है कि उसके पिता जी भी न चाहते हुए इधर कुछ समय से भटक गए हैं। जब से उन्हें बार एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाया गया है, उनकी स्वाभाविक दिनचर्या में ही अंतर नहीं आया है, बल्कि उनकी जमी जमाई 'प्रैक्टिस' भी कुप्रभावित होने लगी है।
वे दोनों मित्र पैदल ही निकल पड़े। बाजार का सीधा रास्ता न पकड़कर संजय ने गलियों वाला छोटा रास्ता पकड़ा। मनोज ने संजय से आगे चौराहे पर पहुँचकर रिक्शा लेने को कहा, लेकिन संजय नहीं माना। वह मनोज को भी हाथ पकड़कर लगभग घसीटता हुआ उसी छोटे रास्ते पर लिवा ले गया।
करीम अली की गोश्त की दुकान के सामने से चढ़ाई वाला रास्ता शुरू हो गया। उसके बाद दाहिने घूम गई वह पतली गली। साँप की तरह बल खाती हुई वह गली काफी आगे तक निकल गई थी। दोनों तरफ के एक मंजिला और दो मंजिला मकान एक-दूसरे से इस तरह से सटे हुए थे जैसे आसमान में एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था होने वाले मटमैले और सफेद बादल। ज्यादातर घरों के दरवाजे बंद थे। कोई-कोई दरवाजा खुला दिखता तो उस पर टाट का कोई परदा लटका दिखता। या फिर भीतरी आड़ की एक दीवार घर के अंदरूनी वातावरण को रहस्यमय बनाए रखती।
गली के ऊपर कटे-फटे आसमान की ओर देखने पर बिजली के खंबों के तार इस तरह बेतरतीब उलझे दिखते जैसे पतझड़ को झेले हुए किसी पेड़ की नंगी शाखाएँ। इस गली में बिजली विभाग के मिस्तरी भी जल्दी नहीं आते थे। अगर किसी की 'कंपलेंट' पर मुहल्ले की बाहरी सड़क पर कोई बिजली मिस्तरी खंबे पर चढ़ा हुआ 'फॉल्ट' दूर करता मिल गया तो उसकी खैरियत नहीं। गली के शरारती लड़के उसे घेर लेते और उसे उसकी लंबी सीढ़ी समेत जबरदस्ती गली में ले जाते। वह लाख कहता कि भाई दफ्तर जाकर कम्प्लेंट तो लिखाओ। मगर उसकी एक न सुनी जाती। गली के लोग उसे अपने-अपने घरों के आड़े-तिरछे तारों के बीच घंटों काम करवाते। जब वह हाथ-पैर जोड़ लेता तभी जाने देते।
गली के मोड़ पर जुम्मन मियाँ का जूतों का कारखाना था। उसके बाद रहमत खाँ जिल्दसाज का घर था। संजय अक्सर वहाँ अपनी कुछ पसंदीदा किताबों की जिल्द बँधवाने आता रहता था।
दोनों मित्र चलते गए। सामने से बत्तखों का एक झुंड आता दिखा। मनोज तेजी से एक चबूतरे पर चढ़ गया। वह बोला - ''बत्तखें! ... इनमें कई कटखनी होती हैं।''
संजय हँसने लगा। लंबी-ऊँची गर्दनों वाली बत्तखें 'क्वैंक-कुणाक' करती हुई उसके बराबर से गुजर गईं।
आगे गली में बड़ी कीचड़ और गंदगी थी। एक सार्वजनिक नल की टोंटी गायब थी। उसमें से निरंतर पानी बहकर गली में जा रहा था। नाली कूड़े से पटी थी। फलतः नाली का पानी बीच रास्ते में ही आवारागर्दी कर रहा था।
अपनी-अपनी पैंट के पाँयचे ऊपर उठाकर मनोज और संजय खाली जगहों पर पंजों के बल उचकते हुए आगे बढ़ते गए। उसके बाद दाहिनी ओर एक खाली जगह आई। वहाँ कुछ बच्चे कुर्ता-सदरी और चूड़ीदार पैजामा या चारखाने का तहमद पहने पतंगें उड़ा रहे थे। पॉलीथीन के टुकड़ों, गंदें चिथड़ों और मुर्गियों की बीटों-परों से अटा हुआ वह मैदान शहर-भर का कूड़ेदान-सा दिखता था।
वहाँ से आगे एक तिराहे पर वे दोनों एक अन्य गली में बाएँ मुड़ गए। कुछ ही गज और चलने पर उन्हें शर्मा घी वाले की दुकान दिख गई। उसके बाद ही वह गली मुख्य बाजार में मिल गई थी।
बाजार के बीच पहुँचकर मनोज ने मानो चैन की साँस ली। उसने संजय से शिकायती स्वर में कहा - ''तुझे इन पाकिस्तानी गलियों से आने की क्या जरूरत थी?''
''क्या बात करते हो?'' संजय ने कहा - ''मैं तो हमेशा इसी रास्ते से आता हूँ। इससे समय और श्रम दोनों की बचत होती है।''
''कहीं ऐसा न हो कि यह बचत किसी दिन तुझे बहुत महँगी पड़े। ... संजय, यह सब ठीक नहीं है तुझे मैं...''
तभी एक रिक्शा सड़क पार करते हुए उन दोनों की बीच आ गया और बात वहीं कट गई। बाजार में बड़ी भीड़ थी। सड़क पार करना ही नहीं, उस पर चल पाना भी इस समय एक टेढ़ी खीर था।
हिंदू-मुस्लिम संबंधों पर अक्सर दोनों मित्रों में लंबी-चौड़ी बहसें हुआ करती थीं। मनोज की धारणा थी कि इस देश के मुसलमानों पर कभी भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। सन् सैंतालीस के विभाजन के बाद जो लोग पाकिस्तान नहीं जा सके उनका मन अभी भी उस मुक्ल में अटका है। ये लोग अपनी आबादी निरंतर बढा रहे हैं और इनके मुस्लिम देशों के साथ खुफिया संपर्क हैं। अवसर मिलने पर ये सभी देश के पुनर्विभाजन के लिए फिर से एकजुट हो जाएँगे। इसीलिए ये सदैव समूह में रहते हैं और अपने रहन-सहन को जैसे एक लौह-आवरण में समेटे रहते हैं। उनका धर्म, संस्कृति सब कुछ हिंदुओं की धार्मिक एवं सांस्कृतिक मान्यताओं के विपरीत है।
संजय इन विचारों से सहमत नहीं था। उसका मानना था कि देश का विभाजन ऐसे अवसरवादी मुस्लिम नेतृत्व का कारनामा था जिसे अपने धार्मिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों से कोई विशेष सरोकार नहीं था। धर्म और संस्कृत को तो अवसरवादियों ने महज एक बहाने के रूप में प्रयोग किया था। उस भ्रमजाल में फँसकर अनेकानेक मुसलमान पाकिस्तान चले गए। जिन मुसलमानों ने जाना स्वीकार नहीं किया उनकी ममता इस देश की मिट्टी से उसी तरह थी जैसी हिंदुओं की। लेकिन देश-विभाजन से उपजी त्रासदियों से बुरी तरह आहत 'हिंदू मन' में 'मुस्लिम अस्तित्व' की भावी संभावनाओं के प्रति जो आशंका का बीज अंकुरित हुआ वह कालांतर में अपना एक निश्चित रूपाकार लेता गया। अविश्वास ही अविश्वास को जन्म देता है। कटुता ही कटुता को बढ़ाती है। कौमी दंगों को भड़काने का कार्य समय-समय पर विकृत मस्तिष्कों एवं असामाजिक तत्वों ने किया। परिणामस्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की खाई और भी चौड़ी होती गई। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सांप्रदायिकता का कोई धर्म या मजहब नहीं होता और असामाजिकता की कोई जाति या उपजाति नहीं होती।